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Monday 5 October 2015

हमे महबूब से ज्यादा माँ की याद आती है

गुज़री हुई एक तिहाई जिंदगानी बताती है
हमे महबूब से ज्यादा माँ की याद आती है

खुदगर्ज़ी का अहसास जीवन की भागदौड़
हमसे आखरी साँस तक छूट नही पाती है

कौम मज़हब रबर के बने सियासती मुद्दे
इंसानियत इनमे चीखती है कुलबुलाती है

आंसूजल से पाक कोई भी दूसरा जल नही
जज्बात की नदियां अपना शोध बताती है

आरती किसी भी भी उतारो तो यूं उतारो
समझो बेचैन साँसे दीप है तो आँखे बाती है