Friends

Friday 2 September 2011

छोडके कुछेक लोग सब कमजर्फ थे



पल पल जीते जी मारा है खुद को
तब जाके मैदान में उतारा है खुद को
डूबोने वालों ने तो कोई कमी न छोड़ी
बड़ी ही मुश्किल से उभारा है खुद को
छोडके कुछेक लोग सब कमजर्फ थे
जाने कहाँ-कहाँ से गुज़ारा है खुद को
अच्छे बुरे की समझ कोई नही देगा
अपना तो यह इशारा है खुद को
छट गए बेचैन मुश्किलात के बादल
ख़ामोशी से जब पुकारा है खुद को
  

घर की टूटी दिवार की चिंता कर


छोड़ दे शौक घरबार की चिंता कर
नादां ना बन व्यपार की चिंता कर
क्या हासिल हवाई किले बनाने से
घर की टूटी दिवार की चिंता कर
जवानी के भ्रम तो पछतावे देंगे
तू जिंदगी के सार की चिंता कर
खुदगर्जी में उम्र कैसे गुजरेगी
मन में छिपे विचार की चिंता कर
गजल का क्या बन ही जाएगी
अ सुखनवर असआर की चिंता कर
जो रहता है बेचैन तुझे पाने के लिए
कभी तो उस तलबगार की चिंता कर