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Sunday 30 October 2011

भीड़ पर भी यकीन हुआ पर

कसम खुदा की मैं रो पडूंगा
गर ना मुडके तू पास आया

नसीब में क्यूं मेरे ही यारों
गम में डूबा अहसास आया
दिखलाता मैं परवाज़ अपनी
पर ना हिस्से आकाश आया
भीड़ पर भी यकीन हुआ पर
ना रिश्तों पर विश्वास आया
सच कहूं इस जन्म में बेचैन
ना इश्क हमको रास आया

दुश्मन ही मेरा हिसाब रखते




मुझे मुनीमों की क्या जरूरत
दुश्मन ही मेरा हिसाब रखते

अपने जरूरी काम भूलकर भी
याद मेरा वो हर ख्वाब रखते
हो चाहे चुगली बनाम बेशक
वो चर्चा मेरी बेहिसाब रखते
नशे की हद तक गुजरते है वो
जो जाम के संग कबाब रखते
ना यादें इतना महकती उनकी
ना किताबों में जो गुलाब रखते
निहाल होते डूबकर दोनों बेचैन
जो नसीब में कोई चनाब रखते