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Sunday 18 September 2011

समझ सकता हूँ कजरारी आँखें



अंगूर की बेटी के जो दीवाने नहीं
वो लोग महफ़िल में बुलाने नहीं
कल के टूटते आज ही टूट जाएँ
झूठे रिश्ते नाते हमें निभाने नहीं
जिंदगी का नशा वो क्या जाने
जिसने उठाकर देखें पैमाने नही
समझ सकता हूँ कजरारी आँखें
इनसे बढ़कर कहीं मयखाने नही
इतना तो तय है सितमगर के
साँझ ढलते ही ख्वाब आने नहीं
कल का ही तो वाक्यात है बेचैन
जख्म महोब्बत के पुराने नहीं

खुल गये है टाँके जख्मों के बेचैन


शुक्र है सम्भाल लिया कलम ने मुझे
वरना मार डाला था तेरे गम ने मुझे
बेशक तुझे पाने का जज्बा था मगर
सनकी किया किस्मत ने भ्रम ने मुझे
किसी का हाथ नही बुलंदी के पीछे
यहाँ तक पहुँचाया है मेरे करम मुझे
बेबसी की कहानी मैं ही जानता हूँ
बहुत तडफाया झूठी कसम ने मुझे
खुल गये है टाँके जख्मों के बेचैन
जब भी कुरेदा है तेरी नज्म ने मुझे