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Wednesday 9 November 2011

रोजाना माँ के पैरों में सर झुका लेता हूँ

बचूंगा तो नही फिर भी आजमा लेता हूँ
सितमगर के नाम पर ज़हर खा लेता हूँ

जब भी आया है कोई ख़ास चेहरा सामने
एक बारगी देखकर आँखे झुका लेता हूँ

यारों की महोब्बत का कमाल है वरना
मैं तो नही मानता मैं अच्छा गा लेता हूँ

यूं करता हूँ इबादत की रस्म अदायगी
रोजाना माँ के पैरों में सर झुका लेता हूँ

नही मालूम कब बनती है अच्छी गजल
मैं कलम तो बेचैन रोजाना चला लेता हूँ

अब नही निकलते चिरागों से जिन्न

 माँ और गरीबी को जिसने भुलाया है
बुलंदी से वो शख्स जमीं पर आया है

खूब खाता है रिश्तेदारों से गालियाँ
औकात को जिसने कच्चा चबाया है

निखरी है और भी उसकी कामयाबी
बुजुर्गों से जिसने आशीर्वाद पाया है

वक्त के इंतिहान में मार गया बाज़ी
नसीब को जिसने आइना दिखाया है

अब नही निकलते चिरागों से जिन्न
जो जान गया उसने कमाकर खाया है

वो संस्कारों को पटरी से उतरें है बेचैन
औलाद को जिसने सर पर चढ़ाया है