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Thursday 9 July 2015

रंजिशें साथ में रहकर भी तो कर सकते थे

रंजिशें साथ में रहकर भी तो कर सकते थे
हम मांगते प्यार और तुम मुकर सकते थे

तुम अगर चाहते तो आज के सड़ते ज़ख्म
नासूर नही बनते उन्ही दिनों भर सकते थे

जब हमारा वज़ूद तलक तेरे पास गिरवी था
करके कलम कदमो में सर भी धर सकते थे

इतना मुश्किल भी नही था बैठकर आपस में
हम गलतफहमियों के दौर से उभर सकते थे

लिखते तुम भी अगर बेचैन किताबे महोब्बत
तुम्हारे हमारी तरह जज्बात निखर सकते थे