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Sunday, 13 November 2011

हमजुबां से खुदा मुझको मिलाता क्यूं नही


कोई मजबूरी है तो मुझे बताता क्यूं नही
वो मेरी तरह यारी में पेश आता क्यूं नही

शक है मुझे समझकर भी नही समझा वो
समझ गया तो ढंग से समझाता क्यूं नही

दांतों तले ऊँगली दबाना तो छुट गया पीछे
मुझको देखकर अब वो शरमाता क्यूं नही

डालकर ख़ाक मेरी बरसों की दीवानगी पर
मेरी हालत पर थोडा रहम खाता क्यूं नही

टकरा ही जाते है बेचैन हर बार दुसरे लोग
हमजुबां से खुदा मुझको मिलाता क्यूं नही


3 comments:

Anonymous said...

bahut khoob ! Nirmal Kothari

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...




टकरा ही जाते है बेचैन हर बार दूसरे लोग
हमजुबां से ख़ुदा मुझको मिलाता क्यूं नही


पता नहीं हमें आप दूसरों में गिनेंगे बंधुवर वी एम बेचैन साहब या हमज़ुबां में ? … लेकिन भ्रमण करते हुए नेट ने हमें आपसे मिला दिया है …
आदाब कबूल कीजिएगा !

… और प्यारी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !


बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार

V M BECHAIN said...

rajendr bhai thnx