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Sunday, 21 October 2012

सफेदी जब से बालों में उतरने लगी है


सफेदी जब से बालों में उतरने लगी है
अदाए नौजवानी की मुकरने लगी है

ये क्या हो रहा है दिन-ओ-दिन आदत को
दिल-ओ-दिमाग से गद्दारी करने लगी है

घुटने लगता है दम महफ़िल में जाते ही
जब से तन्हाईया मुझ पर मरने लगी है

हो ना जाये कही गलतफहमी की शिकार
जरा सी बात पर भी धडकने डरने लगी है

कुछ भी बोल बेचैन सचमुच में यही सच है
जिंदगी उसके बाद से ही संवरने लगी है

बेवकूफों को कुर्सी विद्वान बना देती है

बेवकूफों को कुर्सी विद्वान बना देती है
टुच्चों को भी महफ़िल की शान बना देती है

बेशक तमीज़ ना हो कपड़े तक पहनने की
दौलत मगर सबको कद्रदान बना देती है

सदियों तक बजता है उसके नाम का डंका
बिरादरी जिसकी भी पहचान बना देती है

दाग उम्र भर उसका पीछा नही छोड़ता
रंजिश में जिसे खाकी शैतान बना देती है

कितनी ही सरगोशी क्यूं ना हो बुराई की
चुगली दीवारों के भी कान बना देती है

दादा के कंधे पर पोता चढ़ते ही बोला
महोब्बत रिश्तों को नादान बना देती है

बेकारी से यही तजुर्बा मिला है बेचैन
नौकरी गधों को भी इंसान बना देती है