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Monday, 1 June 2015

ढल जाएगी एक दिन जिंदगी ख़ाक में

दो जून की रोटी कमाने की फिराक में
ढल जाएगी एक दिन जिंदगी ख़ाक में

रिश्ता कोई भी हो तार रूह से जुड़ते है
अहसास को कोई भी ना ले मज़ाक में

लब्ज़ो की धमक दिमाग से टकराती है
बोलता है जो भी कोई आदमी नाक में

उफ़ तरक्की में डूबे नए युग के हादसे
गिद्ध की तरह रहते है हरदम ताक में

सब हर्फो की जादूगरी है वरना बेचैन
कोई फर्क नही बेशर्म और बेवाक में

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