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Saturday, 11 August 2012

सीने से लगाकर कमबख्त किताब रखता है

हुश्न अपनी अदाओ का कब हिसाब रखता है
ये मुनीमी आशिक का दिले-बेताब रखता है

अब कौन समझाए इस खूबसूरत बला को
पड़ोसी भी उसे पाने का ख्वाब रखता है

वो रफ्तार धडकनों की थामने के बहाने
सीने से लगाकर कमबख्त किताब रखता है

उसे देख हो ना जाये कही ट्रेफिक जाम
इसलिए चेहरे पर ढककर हिजाब रखता है

वो पीयेगा इन आँखों से पटियाला पैग
जो रगों में अपने मस्ती-ए-पंजाब रखता है

उसके बदन की महक कही कर न दे हंगामा
इसलिए जुल्फों पर लगाकर गुलाब रखता है

हो सके तो अपना बहम दफना दे बेचैन
कौन किसके लिए आँखे पुरआब रखता है

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