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Saturday, 12 November 2011

ख्वाबों को बच्चे समझ पालता ही रहा

मेरा सब्र गेंद की तरह उछालता ही रहा
कल के नाम पर वो मुझे टालता ही रहा

न मालूम था नही हो पाएंगे कभी जवां
ख्वाबों को बच्चे समझ पालता ही रहा

दुबारा टूटे तमाम भ्रम एक-एक करके
दोस्ती में इस बार भी मुगालता ही रहा

इससे ज्यादा ना और कुछ कर सका मैं
बस गजलों पर भडास निकालता ही रहा

जवां होते ही मिला था जो दर्द यारों से
मुझको उमर भर बेचैन सालता ही रहा

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