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Saturday, 1 December 2012

ये दिन ही दिखाना था तो ना आता हयात में

हाय क्यूं सेंध लगाई तुमने मेरे ज़ज्बात में
ये दिन ही दिखाना था तो ना आता हयात में 

मैं ढूंढता रहता हूँ शक्ल खुद की रात-ओ-दिन
चेहरे पर उगती ढाढ़ी के इस जंगलात में

फिर बैठकर अफ़सोस ही जताना तुम उमर भर
दम निकलेगा मेरा किसी दिन बातों ही बात में

कोई ढंग से जानता हो तो बतला दो दोस्तों
इबादत का समर दोजख है क्यूं कायनात में

मैं कब का भूला देता उस शख्स को बेचैन
रिहायश नही करता वो अगर ख्यालात में



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